नयी दिल्ली, 19 अक्टूबर 2025. कर्नल सोफिया पर साम्प्रदायिक टिप्पणी करने वाले मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के खिलाफ़ स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाई करने वाले मध्यप्रदेश के जस्टिस अतुल श्रीधरन का कॉलेजियम द्वारा तबादला कर दिया जाना सरकार और कॉलेजियम के बीच सांठगांठ का शर्मनाक उदाहरण है. कॉलेजियम को राजनीतिक दबाव में आकर न्यायापालिका की छवि ख़राब नहीं करनी चाहिए. ये बातें कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव शाहनवाज़ आलम ने साप्ताहिक स्पीक अप कार्यक्रम की 217 वीं कड़ी में कहीं.
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि जस्टिस अतुल श्रीधरन ने ही पिछले दिनों दमोह जिले में एक सवर्ण व्यक्ति द्वारा
पिछड़ी जाति के युवक से जबरन पैर धुलवाने और गन्दा पानी पिलाने की घटना पर भी स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाई का आदेश दिया था. इससे पहले कश्मीर हाईकोर्ट में भी उन्होंने निर्दोष मुस्लिम व्यक्ति को पुलिस द्वारा फंसाए जाने पर अधिरकारियों पर न सिर्फ़ दस हज़ार का जुर्माना लगाया था बल्कि उन्हें तथ्य प्रस्तुत करने के बजाये राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा, पाकिस्तान और कट्टरपंथी इस्लाम जैसे जुमलों का इस्तेमाल कर लोगों को भावनात्माक तौर पर डराने की कोशिशों को बंद करने की भी नसीहत दी थी. जिसे भाजपा ने पसंद नहीं किया और उनसे जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट का मुख्यन्यायाधीश बनने का अवसर छीनते हुए उन्हें मध्य प्रदेश ट्रांसर कर दिया.
उन्होंने कहा कि जस्टिस अतुल श्रीधरन को पहले छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट भेजने का निर्देश कॉलेजियम ने दिया लेकिन कुछ ही दिनों बाद निर्णय वापस लेते हुए उन्हें इलाहबाद हाईकोर्ट भेज दिया गया. उन्होंने कहा कि ऐसा कॉलेजियम ने इसलिए किया कि जस्टिस अतुल श्रीधरन छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरीयता के क्रम में तीसरे नंबर पर होने के कारण कॉलेजियम के सदस्य होते और वो हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति के पैनल में भी रहते जिससे वो अपने जैसे संविधान के प्रति निष्ठावान जजों को नियुक्त कर सकते थे. इसीलिए उन्हें जानबूझ कर इलाहबाद हाईकोर्ट भेजा गया जहां वो वरिष्ठता क्रम में सातवें नंबर पर होने के कारण कॉलेजियम के सदस्य नहीं हो पाएंगे.
शाहनवाज़ आलम ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को अनुच्छेद 32 और 226 के तहत मौलिक अधिकारों और संवैधानिक मूल्यों के हनन के मुद्दों पर स्वतः संज्ञान लेकर कार्यवाई करने का अधिकार है. लेकिन अधिकतर जज सरकारों से डर के कारण इन शक्तियों का इस्तेमाल नहीं करते. ऐसे में अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी निभाने वाले किसी भी जज का सरकार के दबाव में ट्रांसफर कर दिया जाना न्यायिक व्यवस्था के लिए शर्मनाक है.









